Tuesday 1 November 2016

भिखारी वो हैं या हम ?

पिछले ही दिनों की बात है। किसी बीमार मित्र का कुशल - क्षेम पूछने के लिए फरीदाबाद जाना पड़ा। अब दिल्ली से फरीदाबाद जाने के लिए दिल्ली मेट्रो से अच्छा साधन क्या हो सकता था, इसलिए मेट्रो से ही यात्रा प्रारम्भ की। वैसे लंबे सफर में अकेले होने पर मुझे कान में इयरफोन लगा कर एफएम पर पुराने गाने सुनकर सफर का आनंद लेने की आदत है। लेकिन गाड़ी के सुरंग में होने के कारण सिग्नल नहीं मिल रहा था, एफएम का। मजबूरन सहयात्रियों के बीच हो रहे आवश्यक-अनावश्यक वार्तालाप को कान देना पड़ा। एक सज्जन अपने मित्र से बात कर रहे थे। बातों से लग रहा था कि अपनी आपबीती सुना रहे थे। 

कहानी कुछ यूँ थी, वो साहब दिल्ली - एनसीआर में किसी बड़ी कंपनी में किसी बड़े पद पर काम करते थे। शुक्रवार की रात को ज्यादा काम की वजह से ऑफिस में देर रात तक उनको रुकना पड़ा तो ऑफिस में ही बाहर से खाना मंगवा कर खा लिया। खाना कुछ ज्यादा ही आ गया था तो उन्होंने इसको फेंकना उचित नहीं समझा। बचे हुए खाने को पैक कर लिया और सोचा कि रास्ते में किसी गरीब भिखारी को दे देंगे। ऑफिस से निकलते ही थोड़ी दूर पर उनको एक भिखारी दिखा, उन्होंने उससे पुछा कि आपने खाना खा लिया ? उसने बोला हाँ जी खा लिया। 

फिर ये आगे बढे, लगभग एक किलोमीटर बाद ही फुटपाथ पर एक बूढा व्यक्ति सोया हुआ मिल गया। उन्होंने गाड़ी रोकी और पास जाकर बोले, "बाबा, मेरे पास खाना है। अगर आपने खाना नहीं खाया हो तो ले लो"। उस बाबा ने भी मना कर दिया, "बोले मैं तो खाना खा चूका हूँ। अगले चौक पर देख लो किसी को दे देना"। इसके बाद काफी दूर-दूर तक उनको कोई नहीं मिला। सोचा कि अब तो किसी जानवर को ही खिलाना पड़ेगा। लेकिन तभी सड़क किनारे बैसाखी पर खड़ा एक युवक दिखा उनको। उसके हाथ में एक पन्नी की थैली लटक रही थी। उन्होंने उससे भी पुछा तो वो बोला, मुझे अभी-अभी कोई खाना देकर गया है, आप आगे किसी और को देदो। 

रात ज्यादा बीत चुकी थी, उनका घर भी पास आ गया था। जब किसी ने नहीं लिया तो उन्होंने खाने को थैली से निकाल कर खुले में सड़क पर रख दिया यह सोचकर कि किसी जानवर का पेट भर जाएगा।  उनकी कहानी यही ख़त्म नहीं हुई। कहने लगे कि "ये भिखारी, जिनको एक वक्त का खाना मिल जाए तो दूसरे वक्त का कोई निश्चित नहीं होता, लेकिन फिर भी इन्होंने एक बार पेट भर जाने के बाद दुबारा खाना नहीं लिया । यह भी नहीं सोचा कि कल सुबह नहीं मिलेगा तो यही खा लूँगा। एक हम हैं कि पता नहीं भविष्य के कितने सालों के लिए खाना इकठ्ठा कर लिये, फिर भी कमाई करने के लिए परेशान रहते हैं"।

सही बात है, हम भिखारियों से ज्यादा कमाते हैं, फिर भी दिन रात परेशान रहते हैं। ज्यादा हाई - प्रोफाइल पार्टियों में जाने का तो कभी मौका नहीं मिला, लेकिन कई भंडारों में या फिर पार्टियों में देखा है मैंने। लोग बुरी तरह से खाने पर टूट पड़ते हैं। और ये लोग भिखारी कदापि नहीं होते। कहीं भी कुछ मुफ्त बाँटना शुरू कर दीजिये, लोग टूट पड़ते हैं। भिखारी कभी भी अपनी जरूरत से ज्यादा नहीं लेता, भविष्य की अति-चिंता नहीं करता।

समझ में नहीं आता, भिखारी वो हैं या हम ?     

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